मित्रों, साथियों
आदि काल से से भौगोलिक दृष्टिकोण अनुसार आर्यव्रत, हिंदुस्तान, भारत को एक वैदिक संस्कृति से पहचाना गया। जिसका प्रतिबिम्ब भगवा रंग में प्रतिबिम्बित हुआ। विश्व की सभी संस्कृति सभ्यताओं ने इस रंग और संस्कृति का सम्मान किया और विश्व गुरु के रूप में सनातन वैदिक संस्कृति को सिर माथे लगाया। आज चाहे योग, व्यायाम, भाषा में संस्कृत, भोजन मंत्र, प्रातः बिस्तर से आंख खुलते ही प्रार्थना "कराग्रे वस्ते लक्ष्मी, कर मध्ये सरस्वती... कर मुलेतू गोविंदा, प्रभाते कर दर्शनम" जैसे मंत्र, स्नान के समय "सूर्य को जल", ध्यान जैसी प्रक्रियाएं केवल रीति मात्र नहीं थीं। ये सार्वभौमिक सिद्ध योग क्रिया हैं जो मनुष्य को उसके अंतर्मन की शक्ति से प्रतिपल उसे अवगत करातीं थीं। एक ऐसी संस्कृति सभ्यता जो सोने से जागने तक, चलने से बैठने तक, जन्म से मृत्यु तक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को जीवन शैली सिखाती थी। जीवन के लक्ष्य निर्धारण में मानव का मार्ग प्रशस्त किया करती थी।
पर ये क्या हुआ सब होते हुए भी मुझे "थी" शब्द प्रयोग करने की आवश्यकता पड़ी। मित्रों आवश्यकता हुई क्योंकि क्योंकि हम खोते जा रहें हैं, भूलते जा रहे हैं अपने आत्म साक्षरता के केन्द्र बिन्दु को, भौतिक जगत के उस बिंदु को जो भौतिकता और अध्यात्म के बीच सामंजस्य बनाता है। हम अपने आध्यात्मिक पंथ के दर्शन से दूर हो गए। इसी प्रक्रिया में हम दूर हो गए अपनी मूल शक्तियों से।
आज हम कुछ ऐसे शक्तिविहीन हुए हैं कि आज हमारे अध्यात्म के प्रतीक मंदिर सुरक्षित नहीं हैं, बहन- बेटियां कितनी सुरक्षित हैं ये मेरठ, अलीगढ़ बयां कर रहें हैं। कश्मीर से कश्मीर के मूल निवासियों का विस्थापन इतिहास के एक काले अध्याय के रूप में हमारे बीच स्थापित है। अखंड भारत सिकुड़ता-सिमटता कहाँ से कहाँ आ गया। हमारे मनीषियों-देवताओं ने मानव रचना के वक़्त स्वप्न देखा था मानव जाति और मानव परंपरा के विस्तार का। मानव के माध्यम से देव दर्शन को इस पावन धरा पर लाने का ,उसे क्रियान्वित करने का। पर ये क्या मानव के रूप में "विकृत संस्कृति" के मानव यानी दानव श्रेणी की प्रजाति भी यहां उपज गई। जैसे अच्छे सुंदर फलों में कुछ फल सड़ कर विकृत हो जाते हैं। भोज्ययुक्त नहीं रह जाते। वैसे ही मानव रूपी ये दानव अपना अलग ही धर्म चला रहे हैं। ये धर्म है मानवों के मंदिर गिराने, उनके आध्यात्म की आधारशिला को नेस्तोनाबूत करने का ध्येय लेकर चलने वाले, ये दानव जहां जहां अपने कदम पसार रहे हैं वहीं वहीं ये अधर्म की सीमा को लांघ रहे हैं।
वर्तमान में आवश्यकता है, अपनी मानवीय सद्गुण युक्त संस्कृति को समझ कर उसके सुझाये मार्ग पर चलने की स्वयं और स्वयं के लोगों को स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों को समझाने की और उसके अनुरूप व्यक्तित्व निर्माण करने की।
कहीं कोई दानव वंश आपकी संस्कृति को खाकर आपको पंगु ना कर दे। इसलिये भाइयों और बहनों अपने मजबूत चरित्रवान व्यक्तिव से अपने धर्म, अपने पन्थ, अपनी संस्कृति, अपनी पहचान को मजबूत रखिये। ताकि ये दानवी ताकतें सर उठाने से पहले ही समाप्त हो जाएं।
भारत माता की जय
दीपक शंखधार, नोएडा
©2019