Wednesday, 4 September 2019

राजनैतिक राम राम और श्याम श्याम

राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में हिंदुत्व पर काम करने वाले संगठनों और दलों पर अक्सर ये इल्ज़ाम आता है कि भगवान राम के नाम का राजनीतिकीकरण कर दिया पर मैं समझता हूँ कि इसे विपक्ष ने भगवान राम को सदैव राजनीतिक दृष्टि से ही देखा है। 1990 में मंदिर का पट खुलना और आम लोगों को एक दूरी से भगवान के दर्शन की अनुमति जब राजीव सरकार ने दी तो साथ ही तुष्टिकरण की राजनीति सिद्ध करने के लिए कुछ समय बाद पी.वी नरसिम्हा सरकार भाजपा शासित प्रदेशों में सरकार बरखास्तगी के आदेश देती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी जब पुरानी राष्ट्रीय पार्टी के "तथाकथित युवा" और राष्ट्रीय अध्यक्ष जनेऊ पहनकर अपनी बहनजी के साथ मंदिर मंदिर घूमने का दिखावा चुनाव तक सीमित करते हैं तो वास्तविकता में इस अंग्रेज़ी पार्टी का चेहरा निकल कर सामने आता है और जनता भी समझ जाती है कि ये केवल राजनैतिक राम-राम और श्याम-श्याम है। श्याम-श्याम से याद आया कि अभी तक युवा अध्यक्ष कान्हा दर्शन करने वृंदावन गलियों में नहीं गए। शायद अगर गए होते तो देख पाते पिछले दशकों से उनके परबाबा, दादी, पापा और मम्मी की सरकार ने वहां की गलियों का चौड़ीकरण किया है और वहां की सैनिटेशन व्यवस्था को कितना समर्थ मजबूत किया है।
    हालांकि ये ज़िम्मा वर्तमान सरकार हिंदुत्व राष्ट्रवादी सरकार का भी है कि जो काम छूट गए हैं उन पर ध्यान दे क्योंकि ये देश ग्रामीण अंचल, आस्था और अध्यात्म से समृद्ध देश है।सोमनाथ से बात शुरू होती है तो ये केवल राम मंदिर निर्माण से पूर्ण नहीं होती। ये कृष्ण जन्मभूमि, जम्मू कश्मीर में खंडित मंदिर और प्रत्येक स्थल जहां जहां नापाक हाथों ने आध्यात्मिक आस्था को शिकस्त देने का प्रयास किया है  हर उस स्थल के जीर्णोद्धार तक पहुंचती है। लोगों ने अपनी आस्था सरकार में व्यक्त की अब सरकार को चाहिए कि अपनी आस्था लोगों की आस्था में व्यक्त करे।
      भारत में धार्मिक स्थल केवल आध्यात्म का विषय नहीं हैं अपितु ये पर्यटन, अर्थव्यवस्था, रोजगार, रचनात्मकता , सभ्यता-संस्कृति, राष्ट्र जागरण को दशा-दिशा प्रदान कर्म वाले स्तम्भ हैं। सरकार चाहे कोई भी हो पर सरकार को इनके सुंदरीकरण को लक्षित करना चाहिए। जिस प्रकार हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था का बड़ा भाग कृषि से  सम्बद्ध उसी प्रकार जन-चेतना, कार्य-प्रेरणा का आयाम धार्मिक स्थलों से सीधा संबद्ध है।
आवश्यता है आज स्वयं को जगाते हुए देश के जागरण की ताकि भारत माता का गौरव परम वैभव को प्राप्त करे।
और "स्वयं अब जागकर हमको जगाना देश है अपना" की पंक्तियां अपना मूर्त रूप ले सकें क्योंकि "राजनैतिक राम- राम और "श्याम-श्याम" की ये देश "राजनैतिक राम राम" ही करता है।

जय हिंद जय भारत

प्रगतिशील समाजवादी विचारधारा से युक्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

27 सितंबर 1925, विजयदशमी के विजय दिवस पर स्थापित संघ, राष्ट्र और धर्म की लड़ाई लड़ते हुए समग्र विश्व में सर्वाधिक संगठित, अनुशासित, वृहद और गैर-विवादित संगठन के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुका है। प्रचारक रूपी संत और देवतुल्य स्वयंसेवक प्रतिपल राष्ट्रनिर्माण की ज्वाल को अपनी कार्मिक आहुति से अक्षुण्य बनाये हुए हैं। चाहे वह भारतीय स्वतंत्रता का बौद्धिक, शारीरिक रूपी युद्ध हो ।आज़ाद भारत में समाजवादी विचारधारा को स्थापित करने, आपातकाल में कष्ट झेलते हुए राष्ट्रनिर्माण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता, राम मंदिर के लिए संत समाज  के दिखाए सन्मार्ग पर चलने हेतु संकल्प हो या विषम परिस्थितियों में लोकनिर्माण में भूमिका अदा करने का विषय, संघ प्रतिपद प्रतिपल अपना दायित्व निभाता रहा और बड़ा संगठन होने के नाते से सहिष्णुता भाव जैसे बड़प्पन का भाव भी दर्शाता रहा।

संघ विस्तार के विषय में राजनैतिक कयास जो भी हों, पर वास्तविकता यह है कि "चरैवेति-चरैवेति" के सिद्धांत को पकड़ कर अपने संपर्क की पहुँच समाज के अंतिम व्यक्ति तक स्थापित करता गया। यही मूल है इसके विस्तृत रूप का। राष्ट्रवादी लोगों को राजनैतिक शिखर तक पहुंचाने के पीछे एक ही भाव "समाज कल्याण" ने संघ को हर वर्ग तक स्थापित कर दिया।

अब आप सोचेंगे कि संघ ने धीरे धीरे समाजकल्याण के लिए किया क्या?ऐसा आप समझ पाएंगे यदि आप किसी स्वयंसेवक या प्रचारक जीवन को नजदीक से देखें समझें तो। प्रातः शाखा जाकर माँ भारती की आरती से अपना दिन प्रारंभ करने वाला स्वयंसेवक अपने साथी स्वयंसेवकों के साथ योग, व्यायाम और भारतीय पारंपरिक खेलों के माध्यम से ना केवल स्वयं को ऊर्जावान्वित करता है अपितु अन्य लोगों के बीच भी इन सभी मूल्यों के प्रति जागरण करता है। शाखा से विकिर करने उपरांत स्वयंसेवक अपने प्रतिदिन दिनचर्या में व्यस्त होकर सांसारिक दायित्वों की पूर्ति करता है। इस प्रकार एक स्वयंसेवक अपने जीवन के सभी आयामों पर साम्य स्थापित करने में सफल होता है। जीवन की इसी क्रिया को  गीता के अनुसार भी योग कहा है। वास्तविक योग वही है जिसमें आप अपने जीवन के सामाजिक, आर्थिक और पारंपरिक सभी आयामों में स्थापित कर ले। ये तो केवल संघ की गृहस्थ या विद्यार्थी स्वयंसेवक व्यवस्था है।

अब इसकी दूसरी व्यवस्था को समझिए जो "प्रचारक जीवन" से होकर गुजरती है। बेहद सामान्य, सहज, सरल तपस्वी जीवन की परिकल्पना है प्रचारक जीवन।प्रचारक, पूर्णकालिक रूप से प्रतिपल स्वयम को तपाते हुए अपने जीवन की सम्पूर्ण पटकथा में केवल एक ही शब्द लिखता है - "राष्ट्र"।प्रचारक के लिए यही राष्ट्र माँ-पिता, मित्र-सहोदर, या जीवन का हर अंग हो जैसे। केवल एक ही लक्ष्य कर्तव्यनिष्ठ, देशभक्त समाजवादी विचारधारा से लबरेज़ स्वयंसेवकों को तैयार करना। जो विद्यार्थी, गृहस्थ, नौकरीपेशा, व्यवसायी, के रूप में समाज के भीतर रहकर राष्ट्र के लिए प्रतिपल समर्पण हेतु तैयार रहें। प्रचारक जीवन पूर्णतया गृहत्यागी, श्वान निद्रा, वकोध्यानं, अल्पाहारी, जैसे सिद्धान्तों पर टिका अटल जीवन है। शायद इसी जीवन को जीने वाले दधीची समान तपस्वियों की तपस्या है कि वर्तमान में संघ क्या करता है इसका लोगों को पता हो या ना हो पर स्वयंसेवक हर सकारात्मक दिशा और क्षेत्र में विद्यमान है ये आभास समूचा विश्व समझ चुका है। चाहे वह खेल, विद्या-विद्यालय, कला, सेवा, प्रचार-प्रसार, व्यवस्था, सांस्कृतिक समरसता, सांस्कृतिक एकता, धर्मिक समरसता हो संघ का स्वयंसेवक प्रतिदिशा में अपना योगदान दे रहा है।

ऐसी व्यवस्था में विकसित हुआ संघ यदि वर्तमान में जहां खड़ा है वो एक प्रतिमान है नियमित और संयमित जीवन का। मेरे (दीपक शंखधार) विचार से संघ पर नकारात्मक टिप्पणी करने का अधिकार उन लोगों को बिल्कुल नहीं है जिन्होनें राजनीतिक पराकाष्ठाओं को प्राप्त करने उपरांत देश को हानि पहुंचाई, समाज को जाति, धर्म, सम्प्रदाय में तोड़ने का कार्य किया। अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए हर नकारात्मक प्रयोग समाज के मध्य किया। यदि विचार और विश्लेषण किया जाए तो देखने में आता है कि संघ अपना लक्ष्य धीरे-धीरे, शांतिपूर्ण प्रयोग से प्राप्त करता है क्योंकि उसके मूल भाव में व्यवस्थित जीवन शैली और अनुशासन है। संघ एक तरफ स्वयंसेवकों को राष्ट्र की व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए किसी भी पल से गुजरने की प्रेरणा देता है तो दूसरी ओर दंड प्रहार के माध्यम से राष्ट्रविरोधी आतातायियों से समाज की रक्षा हेतु युद्धकौशल भी सिखाता है। शांति, सभ्यता और रक्षण के बीच इसी सामंजस्य की कला है संघ। इस प्रकार प्रारम्भ से ही संघ स्वयं के विषय में अपने कार्यक्रमों के माध्यम से इस अवधारणा के प्रेषण और स्थापन्य में सफल होता दृष्टिगत होता है कि संघ केवल एक संगठन मात्र नहीं है अपितु ये राष्ट्रविचारधारा का एक ऐसा सुगंधि ज्योति पुंज है जो ना केवल सुगंधि से समाज को महकाता है अपितु एक ऐसी सकारात्मक ज्योति भी प्रदान करता है जिसके प्रकाश में हमारा राष्ट्र हिंदुस्तान विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर भी होता है।

ये मेरे (दीपक शंखधार) के निजी विचार हैं। यदि इन विचारों से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूँ।

दीपक शंखधार, नोएडा
9910809588