Thursday, 17 April 2025

बंगाल में तड़पता लोकतंत्र

"बंगाल" शब्द सुनते ही ना जाने कितने बुद्धिजीवियों का नाम स्मरण हो आता है, जिन्होंने बिखरी हुई स्वतंत्रता की लड़ाई को एकीकृत किया और स्वतंत्रता में एक अहम भूमिका निभाई। पर पता नहीं क्या हुआ कि बंगाल कम्युनिस्ट विचारधारा का शिकार होता चला गया और शायद अपनी मूल शक्ति "ज्ञान" से दूर होता चला गया। 

         बंगाल केवल एक राज्य और एक देश नहीं है बल्कि भारत का आयाम है, जिसके बिना भारत अधूरा है।बंगाल सुभाष चंद्र बोस, बंकिम चंद्र चटर्जी, रविन्द्रनाथ टैगोर, राम कृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद, राजा राम मोहन राय जैसी महान विभूतियों के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता, सामाजिक जागरण, राष्ट्र गान, राष्ट्र गीत, आजाद हिंद फौज और ना जाने कितनी अनगिनत उपलब्धियां समेटे हुए है। 

           बंगाल ने विभिन्न संस्कारों को स्वयं में स्थान दिया और बंगाल सबकी पहचान बना। ऐसे सबको स्वयं में स्थान देने वाला बंगाल आज इतना असहिष्णु कैसे हो गया कि वहां नृशंस हत्याएं, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी जैसे अपराधिक कार्यों को लोक स्वीकार्यता मिल रही है। बंगाल लोकतांत्रिक रूप से ऐसी सरकार को अनवरत स्वीकार्यता दे रहा है जो अभिमानी है, सत्ता उन्मुखी है। लोकतंत्र में किसी व्यक्ति का महत्वकांक्षी और सत्ता उन्मुख होना लोकतांत्रिक व्यवस्था को विकृत करने जैसा है क्योंकि यहां लोक स्वीकार्यता से सब कुछ संभव है। भारत में लोक द्वारा स्वीकृत विधि स्थापित निकाय तो स्वीकार्य है पर व्यक्तिवादी विचार यहां पैर पसारे ये संभव है। क्योंकि ये बौद्धिक सम्पदा युक्त धरती हैं। ये दुनिया को शून्य देकर गिनती, वर्ण देकर भाषा और वेद देकर देव संस्कार देने वाली धरती है।

आज लोक स्वीकार्यता ऐसे हाथों में हैं जो हाथ शक्ति पूजा करने वालों को कुछ देना चाहते हैं, बंगाल की मूल संस्कृति और सभ्यता को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के समक्ष समर्पित कर देना चाहते हैं। राजनैतिक तुष्टिकरण हेतु बंगाल के बौद्धिक कौशल की बलि चढ़ा देना चाहते हैं। 

लोकतंत्र में ऐसी सरकारें अभिशाप हैं जो अपराध को काबू नहीं कर सकतीं हैं। राजशाही के समापन और समाजवाद के उद्भव का मूल कारण असमानता ही है। आज बंगाल में कष्टप्रद स्थिति है। लोकतंत्र का फैसला स्वीकार नहीं है या फिर यूं कहें "कोई और प्रभावशाली" स्वीकार नहीं है। ख़ैर! कारण चाहे जो हो पर वर्तमान स्थितियों में केंद्र सरकार को चाहिए कि बंगाल की कमान स्वयं संभाल कर बंगाल को सही दिशा में ले जाने का काम करे वरना सत्ता के प्रति ममता की ममता से बंगाल खतरे में आ जाएगा। पूतना यदि गलत नियत से आती है तो कृष्ण को उसका वध करना ही पड़ता है।

                       ।।जय श्री कृष्णा।।



Thursday, 27 March 2025

शीर्षक: संघ का संजय

                  शीर्षक: संघ का संजय

"संजय" नाम ध्यान में आते ही महाभारत का धर्मयुद्ध याद आ जाता है। जिसमें अपनों से अपनों की लड़ाई है सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि धर्म की स्थापना हेतु पात्रता युक्त व्यक्ति को सिंहासन पर बैठाने की। ऐसे सिंहासन पर जहाँ से व्यक्ति कौरव और पांडव जैसा भेद ना करे। जहां से वह समानता न्याय और अंतिम व्यक्ति के महत्व को उचित स्थान देने का काम करे। धर्म का शासन हो ऐसा विचार व्यावहारिक हो।

संजय धर्मयुद्ध की तीसरी आंख है। तीसरी आंख बहुत महत्वपूर्ण होती है। दिखती नहीं है पर सब देखती है, स्वयं से संवाद करती है कसौटी पर परखती है। अपने की चिंता करती है, असंतुलित को संतुलित करती है। इंद्रियों को भी खींच कर रखती है।  इसकी काबिलियत है बिना प्रत्यक्ष हुए सबको अनुशासन में संजो कर रखने की और स्वयं को सबसे जुड़ कर रहने की। फिर चाहे नर हों, इंद्र हो या कोई भी- ये तीसरी आंख सूक्ष्मता से सब का अवलोकन करती है और सबको साधती है। ये शक्ति सबके भीतर है इसलिए संजय भी सबके भीतर है। सबसे जुड़ाव है तीसरी आंख का। कुछ माया में खोए हुए और अहम के वशीभूत लोग इससे बेख़बर हैं। इस प्रकार के अहंकार को वश में करने के लिए तीसरी आंख की जागृति बहुत जरूरी है क्योंकि यही है जो ठीक कर सकती हैं। ये तीसरी आंख ही है जो धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराती है। पर धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराने के लिए कौरवों और उनके प्रभाव से दूर करना पड़ेगा। अन्यथा तो धृतराष्ट्र हैं कि मानने को तैयार ही नहीं। इतने ज़िद्दी हैं कि धर्म युद्ध उपरांत भी भीम को भींचकर, बिना सावधान किए उसी की शैली से उसे मारने का प्रयास करते हैं। खैर पर कृष्ण भी हैं जो सचेत करते रहते हैं। संकेतों के माध्यम से जरासंध वध का तरीका बताते हैं। सारथी बनकर गांडीव को सही दिशा देते हैं। कुल मिलाकर जो सही है उसको हारने नहीं देना है।

अब हम अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी बात करें तो समझ पाएंगें कि "संघे शक्ति कलयुगे" को चरितार्थ और यथार्थ में बदलने के लिए धर्म की लड़ाई लड़ने वालों को एक जुट होना पड़ेगा। नर (पांडव) और नारायण (कृष्ण) को एक मंच से युद्ध लड़ना पड़ेगा और संजय को सत्ता के मार्गदर्शक का दायित्व निभाना होगा। अन्यथा धर्म युद्ध जीतने की प्रक्रिया और लड़ने का फल पूर्ण नहीं होगा। कलयुग में धर्म की लड़ाई अनवरत है, और अधिक संघर्षपूर्ण है - इसके लिए पात्र व्यक्ति को पात्रता अनुसार स्थान देना पड़ेगा। कलयुग में संघ कृष्ण के रूप में जिस लड़ाई को लड़ रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। कृष्ण का अपना महत्व है और संजय का अपना। दोनों खेमे में दोनों महत्वपूर्ण हैं। सत्ता के मार्गदर्शन के लिए संजय की आवश्यकता होती है ताकि सत्ता माया और मद में खो ना जाए। बाकी कृष्ण तो अपना काम सदैव ही करते हैं। सब कृष्ण की माया है। 

                        ।।जय श्री कृष्णा।।


आपका: ऐडवोकेट दीपक शंखधर, नोएडा।
+91 9910809588



Sunday, 16 February 2025

भूकम्प

तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
            कमाल है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं"
आज 17-02-2025 को लगभग सुबह 5:30 बजे, मैं सो रहा था। ऐसा लगा मानो किसी बेड खिसका दिया हो। जब उठा तो सब कुछ सामान्य था। कोई पंखा नहीं हिल रहा था। हमें लगा वहम  है। फिर हमारा स्टेटस देख, हमें जगा हुआ जान कर भाई का कॉल आया कि क्या भूकंप महसूस हुआ? ओह! पृथ्वी डोल गई, यह बात सोचकर अनेकों प्रश्न दिमाग में कौंध गए। अपनों की चिंता हुई। भविष्य को लेकर प्रश्न की एक लकीर दिमाग में खिंच गई कि हम कहाँ जा रहे हैं? हमने धरती पर जो बोझ लादा है ये कंक्रीट के जंगल तैयार कर के...ये ऊंची ऊंची इमारते...कहाँ एक गाँव किलोमीटर में फैला होता था और आबादी सीमित थी । आज नोएडा जैसे शहर में लगभग 5000 मीटर लगभग 5 बीघा में एक गाँव बसा दिया है जो हवा में लटका हुआ है। किसी आपात की स्थिति में 20 मंजिल छोड़िए 5 मंजिल उतरना भारी हो जाएगा। पिज़्ज़ा, बर्गर और मैदा खा कर जीने का "अकर्मण्य युग"। "अकर्मण्य" इसलिए मैदा को पचा लें वो शारीरिक श्रम हम पर नहीं है, केवल दिमागी काम है। जो भाग रहे हैं वो पैरों से नहीं भाग रहे, बल्कि वो वाहनों से दौड़ रहे हैं। ख़ैर! सब कुछ ठीक है पर कुछ बातें ठीक नहीं है।जड़, ज़मीन और मानवता से जुड़े रहने पड़ेगा।

आज के ज़माने के पश्चिम उत्तरप्रदेश एक लोकगीत गायक की पंक्तियां याद आती हैं-

धरती पर मेरे पैर रहें, हाथों से टच स्काई रे
जहां पर मेरे कदम पड़े, वहां आ जाती है सुनामी रे

सच में मानव जहाँ तक फैल रहा है अपने कृत्यों से सुनामी ला रहा है। हाथों से स्काई टच करने के चककर में  पैरों से धरती छूट रही है। यह विचारणीय है।

मानव जाति को इस बात पर सोचना चाहिए।

इस पर दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं कि -
"तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं"

दीपक शंखधार।

ये मेरे अपने निजी विचार हैं। किसी को ठेस पहुंचाना इनका मकसद नहीं है।