Thursday, 17 April 2025

बंगाल में तड़पता लोकतंत्र

"बंगाल" शब्द सुनते ही ना जाने कितने बुद्धिजीवियों का नाम स्मरण हो आता है, जिन्होंने बिखरी हुई स्वतंत्रता की लड़ाई को एकीकृत किया और स्वतंत्रता में एक अहम भूमिका निभाई। पर पता नहीं क्या हुआ कि बंगाल कम्युनिस्ट विचारधारा का शिकार होता चला गया और शायद अपनी मूल शक्ति "ज्ञान" से दूर होता चला गया। 

         बंगाल केवल एक राज्य और एक देश नहीं है बल्कि भारत का आयाम है, जिसके बिना भारत अधूरा है।बंगाल सुभाष चंद्र बोस, बंकिम चंद्र चटर्जी, रविन्द्रनाथ टैगोर, राम कृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद, राजा राम मोहन राय जैसी महान विभूतियों के माध्यम से भारत की स्वतंत्रता, सामाजिक जागरण, राष्ट्र गान, राष्ट्र गीत, आजाद हिंद फौज और ना जाने कितनी अनगिनत उपलब्धियां समेटे हुए है। 

           बंगाल ने विभिन्न संस्कारों को स्वयं में स्थान दिया और बंगाल सबकी पहचान बना। ऐसे सबको स्वयं में स्थान देने वाला बंगाल आज इतना असहिष्णु कैसे हो गया कि वहां नृशंस हत्याएं, बलात्कार, लूटपाट, आगजनी जैसे अपराधिक कार्यों को लोक स्वीकार्यता मिल रही है। बंगाल लोकतांत्रिक रूप से ऐसी सरकार को अनवरत स्वीकार्यता दे रहा है जो अभिमानी है, सत्ता उन्मुखी है। लोकतंत्र में किसी व्यक्ति का महत्वकांक्षी और सत्ता उन्मुख होना लोकतांत्रिक व्यवस्था को विकृत करने जैसा है क्योंकि यहां लोक स्वीकार्यता से सब कुछ संभव है। भारत में लोक द्वारा स्वीकृत विधि स्थापित निकाय तो स्वीकार्य है पर व्यक्तिवादी विचार यहां पैर पसारे ये संभव है। क्योंकि ये बौद्धिक सम्पदा युक्त धरती हैं। ये दुनिया को शून्य देकर गिनती, वर्ण देकर भाषा और वेद देकर देव संस्कार देने वाली धरती है।

आज लोक स्वीकार्यता ऐसे हाथों में हैं जो हाथ शक्ति पूजा करने वालों को कुछ देना चाहते हैं, बंगाल की मूल संस्कृति और सभ्यता को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के समक्ष समर्पित कर देना चाहते हैं। राजनैतिक तुष्टिकरण हेतु बंगाल के बौद्धिक कौशल की बलि चढ़ा देना चाहते हैं। 

लोकतंत्र में ऐसी सरकारें अभिशाप हैं जो अपराध को काबू नहीं कर सकतीं हैं। राजशाही के समापन और समाजवाद के उद्भव का मूल कारण असमानता ही है। आज बंगाल में कष्टप्रद स्थिति है। लोकतंत्र का फैसला स्वीकार नहीं है या फिर यूं कहें "कोई और प्रभावशाली" स्वीकार नहीं है। ख़ैर! कारण चाहे जो हो पर वर्तमान स्थितियों में केंद्र सरकार को चाहिए कि बंगाल की कमान स्वयं संभाल कर बंगाल को सही दिशा में ले जाने का काम करे वरना सत्ता के प्रति ममता की ममता से बंगाल खतरे में आ जाएगा। पूतना यदि गलत नियत से आती है तो कृष्ण को उसका वध करना ही पड़ता है।

                       ।।जय श्री कृष्णा।।



Thursday, 27 March 2025

शीर्षक: संघ का संजय

                  शीर्षक: संघ का संजय

"संजय" नाम ध्यान में आते ही महाभारत का धर्मयुद्ध याद आ जाता है। जिसमें अपनों से अपनों की लड़ाई है सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं बल्कि धर्म की स्थापना हेतु पात्रता युक्त व्यक्ति को सिंहासन पर बैठाने की। ऐसे सिंहासन पर जहाँ से व्यक्ति कौरव और पांडव जैसा भेद ना करे। जहां से वह समानता न्याय और अंतिम व्यक्ति के महत्व को उचित स्थान देने का काम करे। धर्म का शासन हो ऐसा विचार व्यावहारिक हो।

संजय धर्मयुद्ध की तीसरी आंख है। तीसरी आंख बहुत महत्वपूर्ण होती है। दिखती नहीं है पर सब देखती है, स्वयं से संवाद करती है कसौटी पर परखती है। अपने की चिंता करती है, असंतुलित को संतुलित करती है। इंद्रियों को भी खींच कर रखती है।  इसकी काबिलियत है बिना प्रत्यक्ष हुए सबको अनुशासन में संजो कर रखने की और स्वयं को सबसे जुड़ कर रहने की। फिर चाहे नर हों, इंद्र हो या कोई भी- ये तीसरी आंख सूक्ष्मता से सब का अवलोकन करती है और सबको साधती है। ये शक्ति सबके भीतर है इसलिए संजय भी सबके भीतर है। सबसे जुड़ाव है तीसरी आंख का। कुछ माया में खोए हुए और अहम के वशीभूत लोग इससे बेख़बर हैं। इस प्रकार के अहंकार को वश में करने के लिए तीसरी आंख की जागृति बहुत जरूरी है क्योंकि यही है जो ठीक कर सकती हैं। ये तीसरी आंख ही है जो धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराती है। पर धृतराष्ट्र को सत्य से अवगत कराने के लिए कौरवों और उनके प्रभाव से दूर करना पड़ेगा। अन्यथा तो धृतराष्ट्र हैं कि मानने को तैयार ही नहीं। इतने ज़िद्दी हैं कि धर्म युद्ध उपरांत भी भीम को भींचकर, बिना सावधान किए उसी की शैली से उसे मारने का प्रयास करते हैं। खैर पर कृष्ण भी हैं जो सचेत करते रहते हैं। संकेतों के माध्यम से जरासंध वध का तरीका बताते हैं। सारथी बनकर गांडीव को सही दिशा देते हैं। कुल मिलाकर जो सही है उसको हारने नहीं देना है।

अब हम अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसकी बात करें तो समझ पाएंगें कि "संघे शक्ति कलयुगे" को चरितार्थ और यथार्थ में बदलने के लिए धर्म की लड़ाई लड़ने वालों को एक जुट होना पड़ेगा। नर (पांडव) और नारायण (कृष्ण) को एक मंच से युद्ध लड़ना पड़ेगा और संजय को सत्ता के मार्गदर्शक का दायित्व निभाना होगा। अन्यथा धर्म युद्ध जीतने की प्रक्रिया और लड़ने का फल पूर्ण नहीं होगा। कलयुग में धर्म की लड़ाई अनवरत है, और अधिक संघर्षपूर्ण है - इसके लिए पात्र व्यक्ति को पात्रता अनुसार स्थान देना पड़ेगा। कलयुग में संघ कृष्ण के रूप में जिस लड़ाई को लड़ रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है। कृष्ण का अपना महत्व है और संजय का अपना। दोनों खेमे में दोनों महत्वपूर्ण हैं। सत्ता के मार्गदर्शन के लिए संजय की आवश्यकता होती है ताकि सत्ता माया और मद में खो ना जाए। बाकी कृष्ण तो अपना काम सदैव ही करते हैं। सब कृष्ण की माया है। 

                        ।।जय श्री कृष्णा।।


आपका: ऐडवोकेट दीपक शंखधर, नोएडा।
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Sunday, 16 February 2025

भूकम्प

तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
            कमाल है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं"
आज 17-02-2025 को लगभग सुबह 5:30 बजे, मैं सो रहा था। ऐसा लगा मानो किसी बेड खिसका दिया हो। जब उठा तो सब कुछ सामान्य था। कोई पंखा नहीं हिल रहा था। हमें लगा वहम  है। फिर हमारा स्टेटस देख, हमें जगा हुआ जान कर भाई का कॉल आया कि क्या भूकंप महसूस हुआ? ओह! पृथ्वी डोल गई, यह बात सोचकर अनेकों प्रश्न दिमाग में कौंध गए। अपनों की चिंता हुई। भविष्य को लेकर प्रश्न की एक लकीर दिमाग में खिंच गई कि हम कहाँ जा रहे हैं? हमने धरती पर जो बोझ लादा है ये कंक्रीट के जंगल तैयार कर के...ये ऊंची ऊंची इमारते...कहाँ एक गाँव किलोमीटर में फैला होता था और आबादी सीमित थी । आज नोएडा जैसे शहर में लगभग 5000 मीटर लगभग 5 बीघा में एक गाँव बसा दिया है जो हवा में लटका हुआ है। किसी आपात की स्थिति में 20 मंजिल छोड़िए 5 मंजिल उतरना भारी हो जाएगा। पिज़्ज़ा, बर्गर और मैदा खा कर जीने का "अकर्मण्य युग"। "अकर्मण्य" इसलिए मैदा को पचा लें वो शारीरिक श्रम हम पर नहीं है, केवल दिमागी काम है। जो भाग रहे हैं वो पैरों से नहीं भाग रहे, बल्कि वो वाहनों से दौड़ रहे हैं। ख़ैर! सब कुछ ठीक है पर कुछ बातें ठीक नहीं है।जड़, ज़मीन और मानवता से जुड़े रहने पड़ेगा।

आज के ज़माने के पश्चिम उत्तरप्रदेश एक लोकगीत गायक की पंक्तियां याद आती हैं-

धरती पर मेरे पैर रहें, हाथों से टच स्काई रे
जहां पर मेरे कदम पड़े, वहां आ जाती है सुनामी रे

सच में मानव जहाँ तक फैल रहा है अपने कृत्यों से सुनामी ला रहा है। हाथों से स्काई टच करने के चककर में  पैरों से धरती छूट रही है। यह विचारणीय है।

मानव जाति को इस बात पर सोचना चाहिए।

इस पर दुष्यंत कुमार की पंक्तियां याद आती हैं कि -
"तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं"

दीपक शंखधार।

ये मेरे अपने निजी विचार हैं। किसी को ठेस पहुंचाना इनका मकसद नहीं है।

Sunday, 12 June 2022

हिंदू साम्राज्य दिवस

कल ज्येठ मास के शुक्ल पक्ष की त्रियोदशी को हम सब ने हिन्दू साम्राज्य दिवस मनाया।मेरा भी एक शाखा स्थान पर बौद्धिक हुआ। शाखा में लगभग 40 की संख्या में अधिक प्रौढ़ थे और बौद्धिक रूप से अत्यंत संभ्रांत थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता वर्तमान में भारत सरकार के सलाहकार की भूमिका निभाने वाले एक आई.ए. एस. अधिकारी ने की।मुझे 20 मिनट बोलना था। अनेकों विचारों के बीच एक विचार प्रबल होकर जो आज भी ये लेख लिखने पर मुझे मजबूर कर रहा है वो ये है कि कैसे हम इस दिवस को अपने भविष्य की जीवन शैली में होली, दिवाली की तरह उतार दें।

 जिस प्रकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने 6 प्रमुख पर्वों में इसे उल्लास के साथ मनाता है, ठीक उसी प्रकार एक एक सनातनी, वैदिक परंपरा का अंश मात्र भी निर्वहन करने वाला इसे अपने जीवन शैली का अंग बना ले। यही योजना चिंतन का विषय है।क्योंकि ना केवल आज की पीढ़ी ने बल्कि गौर करें तो पश्चिम से संपर्क में आई पिछली पीढ़ी ने ही वहां के रीति रिवाज पर्वो को मनाना प्रारम्भ कर दिया। मदर्स डे, फादर डे, वैलेंटाइन डे तमाम दिन बिना सार्थकता और महत्व को समझे हमने अनुसरण में लेकर आये। जहां प्रतिदिन माता पिता के आशीर्वाद से प्राम्भ हो, श्री गणेश जी की माता पिता परिक्रमा से प्रेरित हो वहां प्रतिदिन ही मातृ-पितृ दिवस है। हमारे ग्रंथो में भक्ति का मार्ग को भी तार्किकता से स्वीकार करने को कहा गया है ताकि धर्मांधता ना फैले,विकृति ना आये, प्रासिंगकता और वैज्ञानिकता बनी रहे। बालकों को शिवाजी पता है क्योंकि किताब में पढ़ा पर उनकी जीवन गाथा का महत्वपूर्ण दिवस उनका राज्याभिषेक नहीं पता है। हालांकि इसमें अन्याय उन इतिहासकारों ने किया जो भारतीय गौरव के सारे अध्याय शब्दरहित कर के चले गए।जो किताबों में भगत सिंह को आतंकवादी लिख गए। उसके बाद अन्याय उन सरकारों का भी रहा जो उस अन्याय पर रोक नहीं लगा पाईं। खैर केवल सरकार पर तोहमत लगाना ठीक नहीं है। कुछ हमें खुद भी सम्भलना होगा। प्रसन्नता कभी कभी तब होती है जब लगता है हम जागृत हो रहे हैं।

हम जागृत हो रहे हैं किस स्तर पर? ये परखना आवश्यक है। इसी पर चिंतन करना आवश्यक है। क्योंकि स्वप्न पूर्ण करने के लिए श्रम करना होगा। सिद्धांतों पर क्रियान्यवन करना होगा। तभी आप शुक्रवार के बाद अपने मन माने शनिवार की परिकल्पना को सिद्ध कर सकते हैं अन्यथा तो शनिदेव कर्मों के साथ फल के विषय पर न्याय करने के लिए ही जाने जाते हैं। कर्म अनुसार ही फल प्राप्त होगा। मीठी भेली चाहिए तो श्रम का मीठा गन्ना सौंपना होगा।

श्रम के मीठे गन्ने से मेरा तात्पर्य है अपनी अगली पीढ़ी को तैयार करने पर श्रम करने से  है। मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक, तार्किक हर आयाम पर। संघ, सरकार, संगठन, दल बड़ी संख्याओं में कार्य कर ही रहे हैं। पर इस विषय पर व्यक्तिगत रूप से मैं से हम की यात्रा करनी होगी। स्वयं से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र की दिशा में बढ़ते हुते कार्य करना होगा। मैं करूँगा, तो मुझसे प्रभावित लोग भी करेंगें और हम की श्रृंखला बनेगी। अनन्त श्रृंखला जैसे अपनी वैदिक सनातन शैली। ऐसी श्रृंखला जो सार्वभौमिकता से स्वीकार भी हो और व्यवहारिक भी हो। कहने का अर्थ है- जहां-जहां वैदिक संस्कृति का पालन करने वाले जन हैं तहां-तहां ज्येठ मास की शुक्ल पक्ष त्रियोदशी को हिन्दू  साम्राज्य दिवस मनाया जाए, उससे एक दिन पूर्व दशहरा जिस पर जल दान है और दशहरा से एक दिन पूर्व निर्जला एकादशी जिसमें एक दिवस जल ग्रहण ना करने का संकल्प है। अर्थात हमारी जीवन शैली का एक-एक दिन पर्व है, प्रासंगिक है वैज्ञानिक है। प्रत्येक दिन पिछले और अगले दिन से जुड़ा है वैज्ञानिक रूप से, ना कि अंग्रेज़ी कलेंडर के माफिक केवल तारीखों की संख्याओं में।

ऐसे यदि हम कर पा रहे हैं तो आज के समय में भी हिन्दू साम्राज्य दिवस मनाने की प्रासंगिकता को जीवंत रखते हुए। उसे भविष्य के लिये गौरवशाली बनाने का प्रयास कर रहे हैं। हमें वर्तमान से भविष्य साधना है। क्योंकि यदि मुगल काल के कष्टदाई दुःख हैं तो महाराणा जैसी प्रेरणा और अशोक जैसा गौरव शाली इतिहास भी है हमारे पास।समय चक्र परिवर्तन शील है। ये बदलेगा ओर हमें अपनी संस्कृति, जीवन शैली के मौलिक सिद्धांतों से समझौता नहीं करना है। यही बात अगली पीढ़ी को समझानी है, जिससे ये साम्राज्य अखंड बना रहे। देश और भूमि परिधियों के नाम कुछ भी हो पर नियम हमारे हों।जीवन शैली कुछ भिन्न हो सकती है पर मूल में हम दिखाई देने चाहिए। 
शेष अगले अंकों में........... 


दीपक शंखधार, नोएडा।

Sunday, 16 January 2022

कर्मयोगी महेश

महेश अर्थात "महा ईश"।अब कोई महा ईश ऐसे ही नहीं बन जाता। भाई तपस्या करनी पड़ती है। तपस्या रूपी यज्ञ में कर्म आहूत करना पड़ता है। तब जाकर सिद्धि प्राप्त होती ही और तब एक कर्मयोगी महेश कहलाता है। मतलब महेश होना पराकाष्ठा है। इस कर्मयोग का ही सुफल है कि व्यक्ति सिद्ध है। महेश विष को गले मे धर कर उसकी पीड़ा को सहकर निरंतर राजा की बगिया के फूलों को गंगा रूपी जल प्रदान करने वाले हैं।जहाँ अस्तित्व संकट में रहता हो ऐसे स्थान पर स्वयं को स्थापित करना।अपने समाज को सुरक्षा हेतु आश्वस्त करना। ऐसे ही कोई कोई महादेव नहीं हो जाता। समाज के रक्षण की चिंता करनी होती है। राजाओं के लड़के जिन पशु पक्षियों का शिकार जीवन भर शक्ति मद में करते हैं। महादेव उन का भी रक्षण करते हैं। आसान नहीं महेश हो जाना।राजा की बगिया के फूल महेश के चरणों को तो छू सकते हैं पर समान्तर कभी नहीं हो सकते। पर छू भी तभी सकते हैं जब स्वयं महेश चाहे। क्योंकि महेश तो कंठ में गरल को रोककर, गले में भयंकर सर्पों को धारण कर ऐसी दुर्गम परिस्थित में भी शीश पर चंद्रमा और गंगा प्रवाह कर समाज को शांति और सुखता प्रदान करते हैं।
अभी के लिए इतना ही.. शेष अगले अंको में। अभी तो अपने महेश को पहचान कर उन्हें ताकत प्रदान करिए क्योंकि अभिमानियों को तो कभी कभी लगता है कि वो महेश समेत हिमालय उठा लेंगें। पर अभिमान भंग के लिए परशुराम भी बनना पड़ता है।

Tuesday, 6 July 2021

भागवत जी डी. एन. ए परीक्षण और राजनीति

अब जो संघ के परम पूज्य सरसंघचालक मोहन भागवत जी कह रहे हैं कि हिन्दू-मुस्लिम का डी. एन.ए  एक है। ये कोई नई बात नहीं कह रहे हैं। पहले भी कहते आये हैं। संघ के तमाम अधिकारी इस बात का दवा वैज्ञानिकता के आधार पर करते आए हैं और बताते आये हैं कि सबके पूर्वज हिन्दू ही हैं।पर आज इस बात पर इतना शोरगुल क्यों है आखिर परेशानी क्या है? दरअसल परेशानी है मुस्लिम और तुष्टिकरण की लीक पर राजनीति करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों को। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन है, जो अपनी एकरूप, वस्तुनिष्ठ शैली के लिए जाना जाता है।अब अगर उसके चीफ ने  कुछ कहा है तो इसका प्रभाव समूचे विश्व पर पड़ने वाला है। तो मुस्लिम के वोट बैंक की राजनीति करने वालों के पेट में दर्द क्यों ना हो?
सर्वे भवन्तु सुखिनः, और वसुधैव कुटुम्बकम की राह चलने वाला पथिक भला मानव-मानव में फर्क क्या जाने और माने? पर मानव और दानव में भेद होता है उसे समझने की भरपूर आवश्यकता है। आज आवश्यकता केवल अगस्त्य मुनि के तरह एक सुरक्षा आवरण तैयार कर लेने की नहीं है अपितु आवश्यकता है राम की तरह समस्त दानव प्रजाति का समूल नष्ट करने की। ख़ैर! इस पर आगे लिखूंगा।
अब इसके राजनीतिक मायने क्या हैं ये भी समझते चलें। जब भारत सरकार में अटल थे तब भी सबका साथ सबका विकास की नीति थी। यही कारण था अटल सबके प्रिय थे। यही संघ है- सबका प्रिय। बस ये उनको अप्रिय है जो दानव हैं, जो समाज का कार्य नहीं करना चाहते। जो मानवता को समान भाव से नहीं देखते। आज जब तीन तलाक हलाला, कश्मीर जैसे विषयों को सुलझा लिया गया है तब लगता है सबका विश्वास भी कायम हुआ है।सबका विश्वास कायम होते ही राष्ट्र उस बयार में बहने लगा है जिस ओर राष्ट्रीयता रूपी भाव की पवन चलती है। अब हिन्दू मुस्लिम सब एक ही हो जाएंगे तो उत्तरप्रदेश में सपा, बसपा और खत्म कांग्रेस और बचता ही क्या है?संघ ने सबको हिन्दू बनाया नहीं है क्योंकि बनाने की जरूरत नहीं है। इसलिए इसका धर्मांतरण से कोई संबंध भी नहीं है। भारत में रहने वाले लोगों की एक ही जीवन शैली है, एक ही सांस्कृतिक सभ्यता विरासत है जिसे हम "हिंदुत्व" कहते हैं। अब तक इस बात को आज के विपक्ष ने कभी राष्ट्रवासियों को समझने नहीं दिया। आज इस विषय को राष्ट्रवासी समझ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बता ही चुके हैं कि सूर्यनमस्कार के बहुत से आसन नमाज़ पढ़ने के आसनों से समान हैं। तो लोगों को योगी का भी स्टैंड समझ आ चुका है। ख़ैर! बात वही है बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएंगी। तो ये लोग जो राष्ट्र समाज को जाति, सम्प्रदाय को तोड़ने का काम करते रहे अब उनकी खैर नहीं। अवाम ने 2014, 2017,2019 में अपना रुख बता दिया। आगे 2022, 2024 की तैयारी है।इन सब कारणों से भागवत जी उवाच के तरह तरह के मायने और आयाम दिखाने का प्रयास किया जा रहा है।

ये लेख आपने पढ़ा, इसके लिए धन्यवाद। पढ़कर टिप्पणी अवश्य करें। आपके सवाल जवाब ही प्रोत्साहन हैं। आगे और भी विषयों पर लिखता रहूंगा। अपने विचार आप तक प्रेषित करता रहूंगा। अभी के लिए जय सिया राम।
नमस्कार

दीपक शंखधार

Sunday, 4 July 2021

राजनीति के पन्ने- पन्ना 1

राजनीति यूं  तो एक अच्छा शब्द है जो एक सत्ता के पक्ष विपक्ष दोनों परिप्रेक्ष्य में सटीक बैठ जाता है। फिर भी राजनीति शब्द के मायने "राज्य के लिए नीति निर्धारण" करने वाली शक्तियों से ही सम्बद्ध होते हैं। ख़ैर! देश काल परिस्थिति अनुसार सब बदलता है ये भी बदला। आज राजनीति के व्यवहारिक मायने कुछ बदले और सभी विषयों की तरह इस विषय ने भी विभिन्न आयामों के सफ़र को तय किया। 1947 से पूर्व भारत में और 14वीं शताब्दी से पूर्व विश्व में राजशाही किस्म का शासन था और आज भारत और विश्व के अनेकों हिस्सों में लोकतांत्रिक।
भारत के परिप्रेक्ष्य में यदि बात करें तो ध्यान में आएगा कि दो ही राजनैतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर व्यवहारिक रूप से वृहदता को प्राप्त कर पाए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी। भारतीय जनता पार्टी मूलतः हिन्दू संगठनों की राजनीतिक परिकल्पना है।

हिन्दू संगठनों की राजनीतिक परिकल्पना अर्थात क्या?
एक ऐसा राजनैतिक विचार जो किसी विदेशी आक्रांताओं का सेफ्टी वाल्व, राजनीतिक महत्वकांक्षा का केंद्र ना हो। जो भारत की संस्कृति को जीवन्त बनाये रखने में सक्षम हो।ध्यान रहे विधायिका ही वह इकाई है जहां से सामाजिक परिकल्पनाएं लोकतांत्रिक राज्य में संवैधानिक रूप से व्यवहार प्राप्त करतीं हैं।यही आवश्यक है क्योंकि कोई संगठन राष्ट्र से आगे नहीं है। सामाजिक संगठन के तौर पर कोई संगठन अच्छे समाजसेवी तैयार कर सकता है जो भविष्य में अच्छे नेतृत्व के रूप में अपनी भूमिका तय कर सकते हैं।

इस सिद्धांत को यदि ठीक ठीक किसी ने अपनाया तो वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू  संगठनों के राजनैतिक आयाम वाले दल भारतीय जनता पार्टी ने। भारतीय जनता पार्टी का संगठन मंत्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रचारक होता है। प्रचारक निजी जीवन में एकला चलो की नीति अपनाते हुए सामाजिक व्यवस्था में सामूहिक रूप से चलता है यानी उसका अपना कुछ नहीं है सब समाज से, समाज के द्वारा और समाज के लिए है।ऐसा चरित्र वान व्यक्ति यदि किसी राजनैतिक दल का मेरूदण्ड हो तो ये बताने की आवश्यकता नहीं है कि संगठन का चरित्र कैसा होगा।इसी प्रकार भाजपा में अधिकतर नेतृत्व मूल स्वभाव से स्वयंसेवक ही होता है। जो सामाजिक कार्य करने की प्रेरणा, शैली, अचार, विचार और व्यवहार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ही सीख समझ और परख कर आता है।ऐसे में अपवाद छोड़कर लगभग अधिकतम संख्या विचार के प्रति निष्ठावानों की हो जाती है।उसी की परिणीति है 2014,2019 लोकसभा चुनाव का परिणाम।
वर्तमान में राज्यों और केन्द्र की स्थिति से ये नि:संकोच कहा जा सकता है कि भाजपा अपने राजनैतिक उच्चतम शिखर पर है। ऐसे में ये ध्यान रखने की आवश्यकता है कि विचार को व्यवहार में स्थायित्व देने में विकृति ना आ जाये क्योंकि ऐसी संभावना है। ऐसा इसलिए क्योंकि भाजपा के  सक्रिय सदस्यों में मूल स्वयंसेवकों की संख्या से अधिकतम संख्या बाहरी लोगों ने प्राप्त कर ली है। जिनके लिए भाजपा केवल राजनीति करने का आयाम है जबकि स्वयंसेवकों को हिंदुत्व संस्कृति को संवैधानिक रूप से समृद्ध करने का रास्ता है भाजपा।

ऐसे में महत्वपूर्ण दायित्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है क्योंकि भाजपा चाहे राजनैतिक रूप से प्रबलतम स्थिति में हो पर इस विश्वास का आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तपस्या है। ये ठीक वैसा ही है जैसे महृषि दधीचि की तपस्या से इंद्र को वज्र शस्त्र मिला। गांधी के विचारों के कारण कांग्रेस को शासन।

शेष अगले अंकों में.....

दीपक शंखधार, नोएडा