Thursday, 23 November 2017

"लोकबंधु राजनारायण - समाजवादी योद्धा"

आज लोकबंधु राजनारायण की 100वीं सालगिरह में हम जी रहे हैं। 31 बरस हुए उनका शरीर हुए। राजनारायण शब्द में ही मानों भगवान विष्णु का स्मरण हो आता हो, जो अपनी संतति को समान प्रकार से जीवन दायिनी संरक्षण प्रदान कर रहे हों। लोकबंधु की उपाधि इस पावन नाम में चार चांद लगा देती है। लोकबंधु की परिभाषा भी वैसा ही इशारा करती है जो राजनारायण की।

आदरणीय रामधारी सिंह दिनकर जी की पंक्तियाँ हैं

    " सिंघासन खाली करो कि जनता आती है"

ऐसा सिद्ध किया राजबन्धु राजनारायण जी ने।जब आयरन लेडी कही जाने वाली भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनके प्रत्येक क्षेत्र में परास्त करते हैं चाहे वह विधायिका हो या न्यायपालिका। सबसे जीतकर कार्यपालिका को समाज को सौंपते हैं और लोकतंत्र की नींव को ओर मजबूत करते हैं समाजवादी लोकबंधु राजनारायण।

जब-जब इस विश्व में असमानताओं ने जन्म लिया व्यक्तिवादी सोच के कारण, पूंजीवाद के हावी होने के कारण तब-तब समाजवादी शक्तियां मुखर हुईं और समाज में समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता पूर्ण माहौल की स्थापना हेतु प्रखर हुईं। समाजवादी विचारधारा के लोग "सबका साथ-सबका विकास" "सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय" की भावना से पूर्ण होते हैं।समग्र विश्व, हमारी "विभिन्नताओं में एकता" और "समाजवादी राजनीतिक-सामाजिक" नीतियों के कारण हमें सम्मान भरी नज़रों से देखता है। समाजवादी विचारधारा, सच्ची इंसानियत की परिभाषा है जो समानता के साथ मिल-बाँट कर खाने और समाज के प्रति आस्थावान होने में विश्वास रखती हैं।

इसी प्रकार के समाजवादी ध्वज को समाज के प्रति प्रखर ओर मुखर रखने का काम राजनारायण जी करते रहे। आज राजनीति जब व्यवसायीकरण, वाणिज्यीकरण और अपराधीकरण की ओर बढ़ती नज़र आती है तब राजनारायण जी बहुत याद आते हैं।चाहे विद्यार्थियों, शिक्षकों पर डंडे बरसाने की बात हो या फिर सर्वहारा के अधिकार हनन की लोकबंधु हर आयाम पर प्रासंगिक हो उठते हैं।

मैं राजनारायण जी की 100वीं सालगिरह पर उन्हें इसी प्रकार याद कर श्रद्धाजंलि अर्पित करता हूँ। आशा करता हूँ कि दोबारा देश में समाजवाद स्थापित होगा जिसमें समाज के पास निर्णयन शक्तियां होगीं, राजनीति तानाशाही मुक्त होगी। हमारे हिंदुस्तान के राजनैतिक सिद्धान्तों की परिपाटी जीवित रहेगी।

ऐसे पावन मौके पर मैं अपनी एक कविता के माध्यम से युवाओं को जाग्रत करना चाहता हूँ -

Friday, 15 September 2017

हिंदुत्व और जीवन दर्शन

हिंदुत्व को नष्ट करने की चेष्टा करने वालों को मेरी कविता "हिन्दू : जीवन दर्शन"  ये बताने के लिए पर्याप्त है कि सनातन और वैदिक संस्कृति ने विश्व को वो सब दिया जो जीवन हेतु आवश्यक था। आज वैदिक संस्कृति 2074 संवत् देख रही है अर्थात तारीखों में भी लिखित रूप से हम सबसे आगे हैं।

क्षमा, दान, तप, त्याग, संयम, समर्पण को परिपाटी पर खरा उतरा हिन्दू जीवन दर्शन 17 बार मोहम्मद गोरी क्षमा करता है। आर्यव्रत पर नीचता की आँख उठाने वाले सिकंदर को परास्त करता है, सेल्युक्स निकेटर को पराजित करके उसकी बेटी को अपने देश की बहू बनाकर ससम्मान अपना रिश्तेदार बनाता है। भारत की शरणागत सभी संस्कृतियों को स्वयं में स्थान देता है ।पर दुःख तब होता है जब हमारे द्वारा शरण पाये हुए कुछ मिशनरी हमारे आस्तीन के सांप बन बैठते हैं। मर जाना तब हो जाता है जब कुछ उच्च पदों पर आसीन हिन्दू (पी. चिदंबरम, सुशील कुमार शिंदे) जैसे लोग हिंदुत्व और भगवा को आतंकवाद से जोड़कर उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने का कार्य करते हैं। तब भी हम अपनी शालीन भाषाशैली और कविता के सहज माध्यम से उन्हें ये बताने का प्रयास करते हैं कि भगवा और हिंदुत्व क्या है? 

जिस सनातन संस्कृति में सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठने, सूर्य-नमस्कार से लेकर रात्रि सोने में क्या खाएं क्या ना खाएं ? कैसे आचरण करें और अपने सभी आचरणों को वैज्ञानिकता के आयामों पर भी सिद्ध करती हो। संकल्प से सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करती हो। मनुष्य के अंदर प्रचंड पौरुष प्राप्त करने की विधि बताती हो। जिससे मनुष्य पत्थर को उँगलियों से मसल सकता है, ध्यान और एकाग्रता के दम पर एक स्थान पर रहकर सम्पूर्ण विश्व को देख सकता हो समझ सकता हो। पुष्पक विमान सरीखे विमान बनाने की विधि से तब अवगत हो गया हो जब आर्यव्रत छोड़ सम्पूर्ण विश्व नग्न बदन घूम रहा था, सर छुपाने को छत तलाश रहा था।उस वक़्त सम्राट अशोक "धम्म" की परिभाषा पर चर्चा कर रहे थे।

हालांकि विश्व स्तर पर देखने को मिलता है कि रूस सरीखे देश भारत को देवों की भूमि मानते हैं और हिंदुत्व को ईश्वर पाने का पंथ। परिणामस्वरुप ना जाने कितने लाख लोग प्रति वर्ष हिन्दू धर्म अपना रहे हैं। हिन्दू धर्म अपने तार्किकता आधारी मानवता केंद्रित कर्म सिद्धान्त से सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है। शायद यही वजह है कि हम हिन्दू गर्व से कह सकते हैं कि शून्य के रूप में गिनती, योग के रूप में शक्ति, गीता के रूप में कर्म की भक्ति, धर्म के रूप में निष्ठा-समर्पण-सेवा, व्यवस्था के रूप में सामाजिक पदक्रम-अनुक्रम सिद्धान्त विश्व को दे पाए और विश्व गुरु बन पाए।

आज भी विश्व बिरादरी में भारत की छवि शान्तिप्रिय देशों के रूप में की जाती है।भारत आज भी आवश्यकता पडने पर प्रत्येक देश की तन-मन-धन से सहायता करता है। एक विकासशील देश होते हुए भी किसी विकसित देश से कम योगदान भारत का नहीं रहा किसी भी स्तर पर। यह समर्पण भाव हमें अपने धर्मगुरुओं और राजगुरुओं से आया है। इस श्रेणी में चाणक्य, विश्वामित्र, गुरु द्रोणाचार्य सरीखे ना जाने कितने गुरुओं का नाम संलग्न है। महऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियों का वज्र बना देवो के राजा इंद्र को केवल इसलिए दान कर दिया था ताकि इस धरती पर धर्म की स्थापना हो। उसी वैदिक और सनातन रीति-नीति पर तब का आर्यव्रत और अब का हिंदुस्तान वर्तमान में भी रथी होकर अपना सफर तय कर रहा है।

इन्हीं सब बातों से विश्व सनातनी रीति-नीति का कायल रहा है।इसलिए भारत को आज भी विश्व अपने गुरु के रूप में देखता है।

Thursday, 14 September 2017

"आर्थिक आरक्षण- लोकसमता स्थापना का आधुनिक उपाय"

"होनहार वीरबान के होते चीकने पात"
पर होनहार होकर करेगा क्या युवा?
क्योंकि प्रतिभा, रोजगार के दरवाजे पर इंतज़ार कर रही थी और पिछडी जन्म आधारी प्रतिभा बिना रोक-टोक दरवाजे के भीतर दाखिल और रोज़गार के घर पर काबिज.....

7 दशक की स्वतंत्रता में राजनीति, व्यापार, जीवन शैली, तंत्रों में योगदान का स्तर सब बदला पर कुछ ना बदला तो वो था- "आरक्षण की प्रत्यंचा पर, वोट बैंक का तीर रखकर राजनीतिक लक्ष्य भेदने का खेल"
"विविधताओं में एकता" की परिपाटी सिद्ध करने वाले देश मेरे भारत में हम संविधान में "समानता" और राजव्यवस्था में "राजनीतिक शुचिता", "सामाजिक सद्भावना" की बात करते हैं।

अनेकों मंडलों आयोगों की परिकल्पना व्यर्थ सिद्ध हो गयी क्योंकि गाँव- देहात से प्रेम-विश्वास के कन्धों पर चढ़कर जब नेता, समाजसेवी दिल्ली पहुंचा तब वह "कंक्रीट के जंगल" में "वन-उपवन" भूल गया। राजनीति-सत्ता-पद के मोह में वो समाज का सही खाका भी नहीं खींच पाया।
कभी नहीं सोचा गया कि दलित और पिछड़े की परिभाषा क्या है? सीधी सी बात है "पिछड़ा" जो पंक्ति में "सबसे अंत" में खड़ा है।चाहे वह किसी भी वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म का क्यों नहीं है बस वह तो संसाधनों से दूर, अपनी बारी की बाट जोह रहा है। जो व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पा रहा है।ऐसे में उस आरक्षी के हिस्से का किस्सा भी खा गया उसी का संभ्रान्त आरक्षी भाई।

जब निजीकरण के दौर में शिक्षा प्राप्त करने का निमित्त धन बन गया हो तो उस से प्राप्त रोजगार की वितरण शैली समाजावादी क्यों हो?वह भी आर्थिक आधारी होनी चाहिए और क्यों ना हो? पूँजीवादी युग में विवेचना का मूलस्रोत 'आर्थिक सक्षम' और 'आर्थिक अक्षम' होना चाहिए और उसी आधार पर आरक्षण सुविधा होनी चाहिए।
ऐसे सभी तथ्य मौजूद होते हुए भी राजनीति की कढ़ाई में सभी वर्गों के नेताओं और ब्यूरोक्रेट की दाल गलती रही, दाल काली होती रही और कालेधन रुपी काली दाल को पी गए कभी चारा घोटाला, कभी व्यापम घोटाला, कभी 2-जी-स्पेक्ट्रम सकैम, कभी खेल-घोटाला के नाम पर।ये दाल पीने वाले आर्थिक रूप से बखूबी सक्षम हुए चाहे वो जातिगत सवर्ण थे या जातिगत दलित।

ऐसे में पिसा अवाम जिनकी निष्ठा, प्रेम-समर्पण का गला घोंटा गया और "लोकतंत्र का लोकहित" सिद्धान्त अपने देश के जयचंदों, जैसे आस्तीन के साँपों के पैरों तले रौंदा गया।पर ध्यान रहे ये सब राजनीतिक हितार्थ हेतु हुआ। पर सावधान ये जातिगत राजनीति रुपी कुम्भकरण नींद से पूर्णतया जागा हुआ है देश की राजनीति का भी वाणिज्यीकरण हो चला है। इसका अंत करने के लिए युवा राम को जन्म लेना होगा जो आर्थिक-आरक्षण की प्रत्यंचा पर विकास का बाण चलाकर देश में लोकसमता की नयी इबारत स्थापित करेगा।जिससे भारत के हर जाति, समुदाय, वर्ग, धर्म-पंथ के लोगों में समानता के संकल्प की सिद्धि होगी और भारत फिर "विविधताओं में एकता" की परिपाटी सिद्ध कर विश्व गुरु बनने की और सफ़र तय करेगा।

"रोहिंग्या - विश्व पटल पर उभरती चुनौती"

जब कुरान की आयतें मानवता का पाठ सिखातीं हों, तब भी इस्लामिक जनसंख्या का कुछ हिस्सा शिया-सुन्नी, जीव-हत्या के नाम पर धर्म की परिभाषा गढ़ता हो।इन्हीं सब के बीच वर्तमान में एक मुद्दा ज्वलंत होता है - रोहिंगाओं का मुद्दा। रोहिंग्या, मुस्लिम धर्म से संबद्ध मूलतः बंगाल के निवासी थे। जिन्हें उपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजों ने म्यमाँर के रखाइन (तब बर्मा के आराकन) नामक स्थान पर विस्थापित कर दिया था।
मसला ये है कि वहीँ पर मुसलमानों का एक और वर्ग है जिन्हें "पंथय मुसलमान" (चीन से विस्थापित मुस्लिम) कहा गया, जो अपने धर्म-व्यापार-शिक्षा-संस्कृति को लेकर बहुत ही निष्ठावान और संकल्पित है।
ज़ाहिर है जो संस्कृति-शिक्षा-व्यापार को लेकर चिंतित है वह शांत और गंभीर होगा पर कुछ समय से ये "पंथय मुसलमान" भी बहुत परेशान और विचलित है जिसका कारण है - "हिंसक रोहिंग्या मुसलमान".....
ये रोहिंग्या अपनी नागरिकता को लेकर परेशानी में हैं और कभी भारत, कभी बांग्लादेश, कभी पाकिस्तान,  और विश्व के अनेकों देशों में शरण लेने के लिए प्रयासरत हैं पर "सहानुभूति" होते हुए भी कोई भी देश या मानवाधिकार की बात करने वाली संस्था इनकी वकालत करने को तैयार नहीं है कारण है इनका - "हिंसात्मक रूप".......

जी हां ये इतने हिंसात्मक है कि पिछले कई दशकों से जिन पंथय मुसलमानों (जिनसे इनके एक धर्म-संस्कृति का नाता है) के साथ रहते हुए भी ये सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे।
अब ऐसे में भारत के आगे एक चुनौती है इनको संरक्षण दे या ना दे? भारत एक शान्तिप्रिय और सबको गले लगाने वाला देश है पर किसी ने कहा है -
                                         "ओते पाँव पसारिये जेती लांबी सौर"

ज़ाहिर है कि हमारे पास संसाधन सीमित हैं और जनसँख्या अधिक। ऐसे में हम इन्हें मूलभूत सुविधाएं रोटी-कपडा-मकान-रोजगार कहाँ से उपलब्ध कराएंगे।
इसी सब के साथ हमें अपने देश की आंतरिक सुरक्षा का भी ख्याल रखना है क्योंकि एक तो "हिंसक होने का दाग" और ऊपर से विभिन्न देशों के कर्ज़दार या उनसे सम्बन्ध रखने वाले रोहिंग्या क्योंकि कहा भी जाता है-
                                           " पेट की भूंख क्या ना करा दे साहब"

फिर ये महाराणा प्रताप के वंशज भी नहीं जिन पर हम ये भरोसा कर लें कि सूखी घास की रोटी खा लेंगे पर सिद्धान्तों से समझौता नहीं करेंगें। ये अपने देश में ही (जहां के दशकों से वासी हैं) अपनी अलग सेना बनाकर विद्रोह कर चुके हैं। रोहिंग्याओं का सेना बनाना और नृशंस हत्यारे होना (बौद्धों की हत्या, पंथय मुसलमानों की हत्या) ये बताने के लिए काफी है कि ये भारत में भी बहुत कुछ अनर्थ कर सकते हैं। तो प्रश्न उठता है कि ऐसे शरणार्थी क्यों संरक्षित किये जाए जो कल हमारे लिए मुसीबत बन जाएँ? हमारे समक्ष नक्सलवादी, वामपंथी लोग आंतरिक सुरक्षा के दृष्टिकोण से चुनौती बनकर खड़े हैं।
रोहिंग्याओं का अधिकारों के लिए हिंसक हो जाना ऐसा भी दर्शाता है कि कहीं ये चीन से संबद्ध तो नहीं ऐसे में भारत को कूटनीति से काम लेना होगा क्योंकि हम "अतिथि देवो भवः", "वसुधैव कुटुम्बकम", "महात्मा बुद्ध" और "महावीर" की परंपरा हैं। मानवता धर्म निभाने हेतु हम संकल्पित हैं पर ये देखने की भी आवश्यकता है कि शरणागत कोई  ख़ुफ़िया दूत, दुश्मन की चाल या हमें नुकसान पहुंचाने से संबद्ध तो नहीं।
   
वर्तमान और विगत रिकॉर्डों के अनुसार रोहिंग्या संगठित रूप में हथियारों से लैस एक खतरनाक प्रजाति हो गयी है इसीलिये विश्व का कोई भी   संगठन और देश सहानुभूति होते हुए भी इनके पक्ष में कदम उठाने को तैयार नहीं।

हालांकि वो मानव ही क्या जिसमें करुणा ना हो पर फिर भी स्वयं जब मानव ही नहीं रहेगा तो संस्कृति,सभ्यता विस्तारित कैसे होंगी?

नरेंद्र से नरेंद्र तक - एक कर्म विवेचना

साथियों आज की तारीख में  एक बात जोर-शोर से फैलाई जा रही है कि एक आदमी अवतरित हुआ है, जो हिंदुस्तान के दुनिया में पहले स्थान पर ले जाएगा, कामयाबी की नई इबारत गढ़ेगा और राष्ट्रवाद की भावना को उन्मुक्त गगन की ओर ले जाएगा। इस मामले पर नरेंद्र यानि विवेकानंद और देश के प्रधानमंत्री पर समीक्षा लेख।
एक आदमी जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सेनापति  बना हुआ है, क्या वह हूबहू नरेंद्र यानि विवेकानंद के चिन्हों पर चल रहा है और उनके (विवेकानंद) सपनों को पूरा कर रहा है? क्या वह शख्स हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी है। इस बात को मैंने लेखनी की कसौटी से कसने की कोशिश की है, कि क्या सचमुच में नरेंद्र से नरेंद्र की परिकल्पना जायज है?
साथियों ये जो बात फैलाई जा रही है कि नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना कितनी हकीकत है और कितना अफसाना, तो मुझे ये सौ फीसदी अफसाना ही लगता हैं, क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व में आसमान और जमीन जितना फर्क है। मेरी नजर में नरेंद्र मोदी सत्ता की गुंजाइश के लिए येन-केन प्रकारेण के कुचक्र में लिप्त हैं जबकि विवेकानंद जी ने मानवहित, कल्याण के लिए अपना सबकुछ भारत भूमि को सौंप दिया था।
हां इसके अलावा अगर हम नरेंद्र मोदी के जीवन पर रोशनी डालने की कोशिश करें तो पाएंगे कि एक व्यक्ति जो अभिजात्य तबके से नहीं आता है, फिर भी उसने अपनी काबलियत से  देश के सबसे शक्तिशाली पद को सुशोभित किया। इस बात पर आलोचना हो सकती हैं कि किसी की राह और सफर कैसा रहा । एक कमजोर आर्थिक परिवेश से आने के बावजूद जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने सत्ता के शतरंज पर फतह हासिल किया वो आजाद हिंदुस्तान में एक उदाहरण तो जरूर रहेगा। लेकिन तब भी मैं यही कहूंगा कि नरेंद्र मोदी एक राजनेता का सफर नरेंद्र यानि विवेकानंद से करोड़ों मील दूर है क्योंकि विवेकानंद का आह्वान समाजहित के लिए था जबकि मोदी का आह्वान सियासत के लिए।
विवेकानंद कहा करते थे कि इस धरती पर जितने भी संसाधन हैं, उसपर सभी इंसानों का बराबर हक है, और अगर ये हक सभी को नहीं मिलता है तो समानता की बात गलत है। और किसी कारण से अगर ये विभेद पैदा हो रहा है तो हमें उसका निदान करना चाहिए और अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमें मानव कहलाने का कोई हक नहीं है।
देश में बेरोजगारी चरम पर है, जीडीपी हांफ रही है, तेल, सब्जी, राशन सभी कुछ असमान तरीके से कुलांचे मार रहे हैं और आम जनता महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। भ्रष्टाचार की बात इसलिए दर्शाया कि एक पत्रिका के सर्वे में हम भ्रष्ट देशों की श्रेणी में अव्वल आ रहे हैं। इस हालात में नरेंद्र मोदी पर व्यापारिक घराने से सांठ-गांठ का आरोप लग रहा है और दिख भी रहा है तो हम कैसे कह दें कि विवेकानंद यानि नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना जायज है। ऐसी स्थिति में हम यही कह सकते हैं कि ये मात्र नाम का ही संयोग हो सकता है और कुछ नहीं।
तानाशाही, कठोरता और पार्टी के भीष्म पितामहों पर अनदेखी जगजाहिर है और उसपर से भी राजनीतिक शुचिता पर सियासत तुष्टिकरण का ग्रहण लगता हुआ प्रतित हो रहा है। ऐसे में कैसे कह दें कि नरेंद्र से नरेंद्र की परिकल्पना जायज है। कैसे लिख दें कि मार्केटिंग में व्यस्त व्यक्ति, मौकापरस्त व्यक्ति, तानाशाह व्यक्ति जिसे अपने सासंद का सवाल करना ठीक नहीं लगता, वो विवेकानंद की शक्ल में आया है।
लोकतंत्र की महानत शिखा पर बैठकर जब एक वानर उत्पात मचाने लगे, तानाशाही और मैं से परिपूर्ण स्वंयभू सिद्ध करने लग जाए तो क्या नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना एक फीसदी भी वाजिब है? आपने क्या सोचा कि  चरखा कातते हुए बापू की तस्वीर हटाकर खुद की लगा लेंगे तो कोई देखेगा नहीं, लिखेगा नहीं। अगर ऐसा सोचते हैं तो भ्रम की स्थिति है साहिब। स्वच्छता अभियान के माध्यम से गोल चश्मे पर काबिज हो जाएंगे तो क्या कोई सवाल नहीं उठाएगा? या फिर मीडिया मोदीमय हो गया है इसका कोई गुमान है आपको। कमजोर विपक्ष के तौर पर एक मजबूत नरेंद्र मोदी को देखता हूं तब मेरा मन कहता है नरेंद्र यानि विवेकानंद की तुलना और परिकल्पना एकदम बेइमानी है।
हां इस बात से मुझे कोई गुरेज नहीं है कि नरेंद्र मोदी का जीवन संघर्षों से भरा रहा है लेकिन नरेंद्र मोदी जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी जिंदगी के सफर को रेखांकित करते हैं मुझे इससे एतराज है,  और कड़ी आपत्ति भी। नरेंद्रमोदी जी आप देश के प्रधानमंत्री हैं इस तरह से बार-बार रोना, गाना अच्छा नहीं लगता। हां ये बात अलग है कि इस रोने-गाने से आपको राजनैतिक लाभ मिल सकता है लेकिन विश्व फलक पर किस तरह की छवि का निर्माण कर रहे हैं आप?  प्रधानमंत्री जी इस देश में कालाहांडी (ओड़िशा) है, इस देश में बस्तर है, इस देश करोड़ों आदिवासी हैं जिन्होंने जीवन की मूलभूत सुविधाओं के बारे में कभी सपना भी नहीं देखा है, और दूसरी तरफ इस देश में अंबानी, अडाणी और अमिताभ बच्चन परिवार भी है।
जब मैं परिकल्पना की बात सुनता हूं, तो मुझे दुख होता है, पीड़ा होती है कि क्या मोदी जी सिर्फ अपनी मार्केटिंग के लिए अपनी तुलना विवेकानंद से कराने के लिए माहौल रच रहे हैं या बात कुछ और भी है। अगर ऐसा वाकई है तो मैं संशय में हूं और नरेंद्र यानि विवेकानंद की तुलना नरेंद्र मोदी से बिल्कुल बेइमानी है।
ये लेखक के निजी विचार हैं।

जीवन की स्वर्णिम शैली हिंदी

    स्वरचित पंक्तियों से अपने जीवन का प्रणरूपी उद्देश्य बताते हुए माँ हिंदी के विषय में यही कहना चाहता हूँ-

           "प्रण होगा मेरा कि अब हिंदी हिंदुस्तान बनें
         गाया जाए गान धरा पर वह हिंदी का गान बनें
      हिंदी ने स्वीकारा सबको, जैसा था अपनाया सबको
                   हिंदी ही अब अपना मातृ-गान बने
              प्रण होगा मेरा कि अब हिंदी हिंदुस्तान बनें
           गाया जाए गान धरा पर वह हिंदी का गान बनें"


अपने मुख से निकले प्रथम शब्द माँ से लेकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 तक हिंदी को मातृ भाषा से राजभाषा तक सुशोभित होते देखता हूँ तो महसूस होता है कि हिंदी मेरे मन-प्राण से लेकर हिंदुस्तान के कण-कण की जुबान है।पत्रकारिता, साहित्य-लेखन, कवि-सम्मेलन, लोकगीत, नुक्कड़ नाटकों और मंचों के माध्यम से हिंदी की अक्षुण्य मशाल ज्वलंत देखकर लगता है कि हिंदी का हर बेटा अपनी आखिरी श्वांस अपनी माँ के साथ जीना चाहता है।
       मैं-हम, तू-तुम-आप जैसे शब्दों की व्यंजना हिंदी ना केवल प्रेम-समर्पण-स्वाभिमान-सम्मान की परिपाटी स्थापित करती है अपितु संस्कार-सदगुणों से परिपूर्ण एक सभ्यता स्थापित करती है। इन सब के बीच विभिन्न सरकारी महकमों और सर्वोच्च न्यायिक तंत्रों से हिंदीं की दूरी देख ऐसा महसूस होता है जैसे मानों जीवन के एक आयाम की उच्च शिखा पर बैठकर एक बेटा अपनी माँ को ही ऊंचाइयों का गुरूर दिखा रहा हो।
      वर्तमान युग संचार-तकनीक युग है और विभिन्न एप, वेबसाइट के माध्यमों से हिंदी को मजबूत बनाने की मुहिम चल रही है। यह मुहीम हिंदी माँ के "दीपक की दीप्ति" को अनवरत ज्वलंत रखेगी। हिंदी अ-अज्ञानी से लेकर ज्ञ-ज्ञानी तक का साधनायुक्त सफर है। इसलिए मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ की हिंदी प्रेम-समर्पण-श्रद्धा-स्वाभिमान-अनुसरण-गतिशीलता की साधनायुक्त बोली, भाषा एवम् परिभाषा है।