"होनहार वीरबान के होते चीकने पात"
पर होनहार होकर करेगा क्या युवा?
क्योंकि प्रतिभा, रोजगार के दरवाजे पर इंतज़ार कर रही थी और पिछडी जन्म आधारी प्रतिभा बिना रोक-टोक दरवाजे के भीतर दाखिल और रोज़गार के घर पर काबिज.....
क्योंकि प्रतिभा, रोजगार के दरवाजे पर इंतज़ार कर रही थी और पिछडी जन्म आधारी प्रतिभा बिना रोक-टोक दरवाजे के भीतर दाखिल और रोज़गार के घर पर काबिज.....
7 दशक की स्वतंत्रता में राजनीति, व्यापार, जीवन शैली, तंत्रों में योगदान का स्तर सब बदला पर कुछ ना बदला तो वो था- "आरक्षण की प्रत्यंचा पर, वोट बैंक का तीर रखकर राजनीतिक लक्ष्य भेदने का खेल"
"विविधताओं में एकता" की परिपाटी सिद्ध करने वाले देश मेरे भारत में हम संविधान में "समानता" और राजव्यवस्था में "राजनीतिक शुचिता", "सामाजिक सद्भावना" की बात करते हैं।
अनेकों मंडलों आयोगों की परिकल्पना व्यर्थ सिद्ध हो गयी क्योंकि गाँव- देहात से प्रेम-विश्वास के कन्धों पर चढ़कर जब नेता, समाजसेवी दिल्ली पहुंचा तब वह "कंक्रीट के जंगल" में "वन-उपवन" भूल गया। राजनीति-सत्ता-पद के मोह में वो समाज का सही खाका भी नहीं खींच पाया।
कभी नहीं सोचा गया कि दलित और पिछड़े की परिभाषा क्या है? सीधी सी बात है "पिछड़ा" जो पंक्ति में "सबसे अंत" में खड़ा है।चाहे वह किसी भी वर्ग, समुदाय, जाति, धर्म का क्यों नहीं है बस वह तो संसाधनों से दूर, अपनी बारी की बाट जोह रहा है। जो व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पा रहा है।ऐसे में उस आरक्षी के हिस्से का किस्सा भी खा गया उसी का संभ्रान्त आरक्षी भाई।
जब निजीकरण के दौर में शिक्षा प्राप्त करने का निमित्त धन बन गया हो तो उस से प्राप्त रोजगार की वितरण शैली समाजावादी क्यों हो?वह भी आर्थिक आधारी होनी चाहिए और क्यों ना हो? पूँजीवादी युग में विवेचना का मूलस्रोत 'आर्थिक सक्षम' और 'आर्थिक अक्षम' होना चाहिए और उसी आधार पर आरक्षण सुविधा होनी चाहिए।
ऐसे सभी तथ्य मौजूद होते हुए भी राजनीति की कढ़ाई में सभी वर्गों के नेताओं और ब्यूरोक्रेट की दाल गलती रही, दाल काली होती रही और कालेधन रुपी काली दाल को पी गए कभी चारा घोटाला, कभी व्यापम घोटाला, कभी 2-जी-स्पेक्ट्रम सकैम, कभी खेल-घोटाला के नाम पर।ये दाल पीने वाले आर्थिक रूप से बखूबी सक्षम हुए चाहे वो जातिगत सवर्ण थे या जातिगत दलित।
ऐसे में पिसा अवाम जिनकी निष्ठा, प्रेम-समर्पण का गला घोंटा गया और "लोकतंत्र का लोकहित" सिद्धान्त अपने देश के जयचंदों, जैसे आस्तीन के साँपों के पैरों तले रौंदा गया।पर ध्यान रहे ये सब राजनीतिक हितार्थ हेतु हुआ। पर सावधान ये जातिगत राजनीति रुपी कुम्भकरण नींद से पूर्णतया जागा हुआ है देश की राजनीति का भी वाणिज्यीकरण हो चला है। इसका अंत करने के लिए युवा राम को जन्म लेना होगा जो आर्थिक-आरक्षण की प्रत्यंचा पर विकास का बाण चलाकर देश में लोकसमता की नयी इबारत स्थापित करेगा।जिससे भारत के हर जाति, समुदाय, वर्ग, धर्म-पंथ के लोगों में समानता के संकल्प की सिद्धि होगी और भारत फिर "विविधताओं में एकता" की परिपाटी सिद्ध कर विश्व गुरु बनने की और सफ़र तय करेगा।
ek dum sahi deepak ji
ReplyDeletehume school m padahaya jata h ki humare constituent m 6 adhikar h jaise ki samanta ka adhikar
jb araksan h to samanta ka adhikar kha rh jata h
humare sambhidhan ka palan kha ho paa rha h
jo ki ye neta vote bank k liye arakshan ki rajniti karte h or sambhidan ko jhoota kar rahe h or humre sirf 5 molik adhikar hi rh gaye h 1 to neglect hi kar diya gya h
Thanks sachin ji
DeleteThanks sachin ji
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