साथियों आज की तारीख में एक बात जोर-शोर से फैलाई जा रही है कि एक आदमी अवतरित हुआ है, जो हिंदुस्तान के दुनिया में पहले स्थान पर ले जाएगा, कामयाबी की नई इबारत गढ़ेगा और राष्ट्रवाद की भावना को उन्मुक्त गगन की ओर ले जाएगा। इस मामले पर नरेंद्र यानि विवेकानंद और देश के प्रधानमंत्री पर समीक्षा लेख।
एक आदमी जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सेनापति बना हुआ है, क्या वह हूबहू नरेंद्र यानि विवेकानंद के चिन्हों पर चल रहा है और उनके (विवेकानंद) सपनों को पूरा कर रहा है? क्या वह शख्स हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी है। इस बात को मैंने लेखनी की कसौटी से कसने की कोशिश की है, कि क्या सचमुच में नरेंद्र से नरेंद्र की परिकल्पना जायज है?
साथियों ये जो बात फैलाई जा रही है कि नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना कितनी हकीकत है और कितना अफसाना, तो मुझे ये सौ फीसदी अफसाना ही लगता हैं, क्योंकि दोनों के व्यक्तित्व में आसमान और जमीन जितना फर्क है। मेरी नजर में नरेंद्र मोदी सत्ता की गुंजाइश के लिए येन-केन प्रकारेण के कुचक्र में लिप्त हैं जबकि विवेकानंद जी ने मानवहित, कल्याण के लिए अपना सबकुछ भारत भूमि को सौंप दिया था।
हां इसके अलावा अगर हम नरेंद्र मोदी के जीवन पर रोशनी डालने की कोशिश करें तो पाएंगे कि एक व्यक्ति जो अभिजात्य तबके से नहीं आता है, फिर भी उसने अपनी काबलियत से देश के सबसे शक्तिशाली पद को सुशोभित किया। इस बात पर आलोचना हो सकती हैं कि किसी की राह और सफर कैसा रहा । एक कमजोर आर्थिक परिवेश से आने के बावजूद जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने सत्ता के शतरंज पर फतह हासिल किया वो आजाद हिंदुस्तान में एक उदाहरण तो जरूर रहेगा। लेकिन तब भी मैं यही कहूंगा कि नरेंद्र मोदी एक राजनेता का सफर नरेंद्र यानि विवेकानंद से करोड़ों मील दूर है क्योंकि विवेकानंद का आह्वान समाजहित के लिए था जबकि मोदी का आह्वान सियासत के लिए।
विवेकानंद कहा करते थे कि इस धरती पर जितने भी संसाधन हैं, उसपर सभी इंसानों का बराबर हक है, और अगर ये हक सभी को नहीं मिलता है तो समानता की बात गलत है। और किसी कारण से अगर ये विभेद पैदा हो रहा है तो हमें उसका निदान करना चाहिए और अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हमें मानव कहलाने का कोई हक नहीं है।
देश में बेरोजगारी चरम पर है, जीडीपी हांफ रही है, तेल, सब्जी, राशन सभी कुछ असमान तरीके से कुलांचे मार रहे हैं और आम जनता महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। भ्रष्टाचार की बात इसलिए दर्शाया कि एक पत्रिका के सर्वे में हम भ्रष्ट देशों की श्रेणी में अव्वल आ रहे हैं। इस हालात में नरेंद्र मोदी पर व्यापारिक घराने से सांठ-गांठ का आरोप लग रहा है और दिख भी रहा है तो हम कैसे कह दें कि विवेकानंद यानि नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना जायज है। ऐसी स्थिति में हम यही कह सकते हैं कि ये मात्र नाम का ही संयोग हो सकता है और कुछ नहीं।
तानाशाही, कठोरता और पार्टी के भीष्म पितामहों पर अनदेखी जगजाहिर है और उसपर से भी राजनीतिक शुचिता पर सियासत तुष्टिकरण का ग्रहण लगता हुआ प्रतित हो रहा है। ऐसे में कैसे कह दें कि नरेंद्र से नरेंद्र की परिकल्पना जायज है। कैसे लिख दें कि मार्केटिंग में व्यस्त व्यक्ति, मौकापरस्त व्यक्ति, तानाशाह व्यक्ति जिसे अपने सासंद का सवाल करना ठीक नहीं लगता, वो विवेकानंद की शक्ल में आया है।
लोकतंत्र की महानत शिखा पर बैठकर जब एक वानर उत्पात मचाने लगे, तानाशाही और मैं से परिपूर्ण स्वंयभू सिद्ध करने लग जाए तो क्या नरेंद्र से नरेंद्र मोदी की परिकल्पना एक फीसदी भी वाजिब है? आपने क्या सोचा कि चरखा कातते हुए बापू की तस्वीर हटाकर खुद की लगा लेंगे तो कोई देखेगा नहीं, लिखेगा नहीं। अगर ऐसा सोचते हैं तो भ्रम की स्थिति है साहिब। स्वच्छता अभियान के माध्यम से गोल चश्मे पर काबिज हो जाएंगे तो क्या कोई सवाल नहीं उठाएगा? या फिर मीडिया मोदीमय हो गया है इसका कोई गुमान है आपको। कमजोर विपक्ष के तौर पर एक मजबूत नरेंद्र मोदी को देखता हूं तब मेरा मन कहता है नरेंद्र यानि विवेकानंद की तुलना और परिकल्पना एकदम बेइमानी है।
हां इस बात से मुझे कोई गुरेज नहीं है कि नरेंद्र मोदी का जीवन संघर्षों से भरा रहा है लेकिन नरेंद्र मोदी जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी जिंदगी के सफर को रेखांकित करते हैं मुझे इससे एतराज है, और कड़ी आपत्ति भी। नरेंद्रमोदी जी आप देश के प्रधानमंत्री हैं इस तरह से बार-बार रोना, गाना अच्छा नहीं लगता। हां ये बात अलग है कि इस रोने-गाने से आपको राजनैतिक लाभ मिल सकता है लेकिन विश्व फलक पर किस तरह की छवि का निर्माण कर रहे हैं आप? प्रधानमंत्री जी इस देश में कालाहांडी (ओड़िशा) है, इस देश में बस्तर है, इस देश करोड़ों आदिवासी हैं जिन्होंने जीवन की मूलभूत सुविधाओं के बारे में कभी सपना भी नहीं देखा है, और दूसरी तरफ इस देश में अंबानी, अडाणी और अमिताभ बच्चन परिवार भी है।
जब मैं परिकल्पना की बात सुनता हूं, तो मुझे दुख होता है, पीड़ा होती है कि क्या मोदी जी सिर्फ अपनी मार्केटिंग के लिए अपनी तुलना विवेकानंद से कराने के लिए माहौल रच रहे हैं या बात कुछ और भी है। अगर ऐसा वाकई है तो मैं संशय में हूं और नरेंद्र यानि विवेकानंद की तुलना नरेंद्र मोदी से बिल्कुल बेइमानी है।
ये लेखक के निजी विचार हैं।
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